श्री महाप्रभुजी पिंडतारक पधारे और एक चोखर के वॄक्ष के निचे बिराजे. आपश्रीने अपने सेवक से आज्ञा की " भगवन कृष्ण जब द्वारका के राजा थे, तब आस पास के तीर्थो को सनाथ किया था".और यह वही स्थान हे जहा दुर्वासा ऋषि का निवास आश्रम था. इसलिए यहाँ हम श्रीमदभागवत परायण करेंगे। जब श्री महाप्रभुजी ने भगवत परायण प्रारम्भ किया, तब एक ब्राह्मण प्रति दिन श्रवण करने पधारते थे. श्री महाप्रभुजी ने वह ब्राह्मण से पूछा " आप कौन हो ". उत्तर देते आप बोले "महारज में यह तीर्थ क्षेत्र में निवास करता हु, और लम्बे समय से आपके श्रीमुख से कथा श्रवण करने की प्रतीक्षा कर रहा हु. आपश्री के कृपा से अब हमारा मनोरथ सिद्ध हुवा"
यह वचन सुनकर श्रीमहाप्रभुजी के सेवक कृष्णदास मेघन ने प्रश्न किया " प्रभु यह ब्राह्मण कौन हे ?". तब आचार्यजी बोले,"यह ब्राह्मण यहाँ के तीर्थ राज हे, और यहाँ के देवता हे ". कथा के समापन पर एक तीर्थ पुरोहित आचार्याजी के पास आया और मोक्ष की विनती की. श्री महाप्रभुजी ने उनका योग्य सन्मान दक्षिणा से किया, और तीर्थराज उनको मोक्ष प्रदान करेंगे, ऐसे आशीर्वाद दे विदा किया.
पिंडतारक में श्रीमहाप्रभुजीने अनेक जीवो को शरणे लिया।